मिलन 2020

फिर मिले हैं हम
बुढापे की कगार पर खड़े,
अपने आप को ठरकी कहने वाले।
कुछ दोस्त मिले हैं फिर आज।

आँखों की रोशनी शायद धुंधलाने लगी हो,
मोटापे की मार से शायद परेशान भी हो।
बालों मे भले सुनहरे परत चढे हो।
लेकिन दिल से जवां है सारे।

बचपन इनके रगों में दौड़ता है।
सुकून, बचपन की यादों में खोजता है।
आज, फिर से वे सारे मिले है।

कह दो तारों को
आज रात उन्हें जागना होगा।
चन्दा को
अपनी चांदनी लिये ठहरना होगा।
हवाओं को आज
मतवाले सुर लिए बहना होगा।
क्योंकि
दोस्ती की यह बेमिसाल जश्न जो आज होगा।

बचपन से आज बचपन की मुलाकात जो होगी।
किस्सों की लड़ी से दिवाली जैसी रोशनी जो होगी।
उम्र के बढते कदम पर ठहाकों की बेड़ियाँ डाले जाएंगे।
कल कि फिक्र को जाम मे डुबोया जाएगा।
क्योंकि आज फिर मिले है दोस्त सारे।
आज फिर, मिले हैं दोस्त सारे।

मेरे बचपन के स्कूल के सभी दोस्तों को  समर्पित

Copyright reserved @ Goutam Dutta

#huesoflifepoetryGD

#straightfromtheheartpoetryGD

काला अक्षर

पता नहीं क्या ढूँढता है वह,
कागज़ और किताबों के पन्नों पर।
शायद काले अक्षरों मे
अपने ख्वाबों का राख ढूंढ रहा हो?

IMG_20200217_175130_832Copyright reserved @ Goutam Dutta

 

खो गए मेरे ख्वाब

कुछ सपने हमने भी देखें थे।
लेकिन किसी बेरहम ने झकझोर कर जगा दिया
और वे ख्व़ाब जिन्दगी की चकाचौंध रौशनी मे
दफन हो गए।

Copyright @ Goutam Dutta

#straightfromtheheartGD

#HuesoflifepoetryGD

तुम्हारा पचास

दुनिया को बताओ
आज तुम्हारा पचास।
भर लो दिल में खुशियों का अहसास
आज तुम्हारा पचास।
खेलने दो हवाओं को अपने बालों से बेहिसाब,
झटक के कंधों को, छंदों को बुलाओ अपने पास,
सुनहरे बालों पे सूरज कि झिलिक को न छुपाओ आज,
तुम्हारा आज पचास।

बे-तुक की बातों को दिल से get-out कर दो।
पचास वाला दिल को आज मतवाला कर लो।
दुनिया की चहल-पहल से तनिक अलग हट लो।
दिमाग को झकझोर कर पचास सालों की कुछ सुनहरी यादें चुन लो।
हो आषाढ़, या फिर सावन, या बैशाख,
हर मौसम के सूरज से रु-ब-रू होने का,
रखो अ-मिट विश्वास।

Amul chocolate की मिठास भर कर फिर हो जाए
तुम्हारा पचास।
Dutta केन्टीन के पत्ते के दोने में भरा सिंघाड़े के साथ फिर हो जाए
तुम्हारा पचास।
हमारे उस छोटे से कसबे के दिनों के साथ फिर हो जाए,
खतो में बन्द वो सारे अन्दाज लिए फिर हो जाए,
Kawasaki बाईक पे बैठ जमशेदपुर के रास्तों पर चलते हुए, फिर हो जाए,
तुम्हारा पचास।

Grow old with me, the best is yet to be-
इन पंक्तियों के सफर की शुरुआत हो जाए आज।
पचासि की ओर बढ़ चले बे-फिक्र,
तुम्हारा पचास।

१९ अक्टूबर २०१९

पत्नी की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर

मेरा शहर बढ़ रहा

बहुत ही है प्यासा।
बढ़ता ही जा रहा
हर तरफ बाहें फैलाता
गला घोंटने को है उतावला,
यह शहर मेरा।

कांक्रीट की यह इमारतें
निकल पड़े हैं हर गलि,
हर मुहल्ले, हर रास्ते,
हरियाली पर कर प्रहार,
न जाने किस मुकाम की है तालाश।

खामोश बैठा सिसकियां भरता।
दो गज़ जमीन का वह टुकड़ा।
पेड़ों कि सजीवता बरकरार रखने कि चेष्टा
पत्थर की दीवारों पर विफल सर कूटता।

भूल गए हैं रास्ते परिंदे,
अट्टालिकाएं जो उनके पथ पर पाते खड़े।
हर शाम को मेरा बालकनी को मैं निराश पाता।
दूर श्रितिज पर
सूरज की रंगों की बौछार का दृश्य से वंचित रहता।

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अचानक ख्याल

अचानक ख्याल आया।
कुछ बातें रह गई।
अनकही।

आंखों मे आंसू ।
कृत्रिम हंसी की रेखा, होंठों पर।
पल भर का समय अवशेष।
फिर अचानक ख्याल आया।
कुछ बातें रह गई।
अनकही।

क्या खोया, क्या पाया,
हिसाब के किताब का शेष पन्ना।
बिछड़ने की घड़ी का पास आना।
फिर अचानक ख्याल आया।
कुछ बातें रह गई।
अनकही।

इक आखरी बार मुड़कर देखना।
आंसुओं से रुमाल का भीग जाना।
होंठों का कंपकंपाना।
वापस लौटने की तीव्र इच्छा।
फिर अचानक ख्याल आया।
कुछ बातें रह गई।
अनकही।

निशाना धूप का

कुछ लोग आकर‌ पेड़ की डाली काट कर चले गए।
बहुत बड़ा हो गया था न पेड़!
रास्ते के उपर चले आने कि हिमाकत दिखाई थी।
इंसान की दुनिया में अनाधिकार प्रवेश कर गया था।
ट्राफिक लाइट्स के साथ लुका-छिपी खेलते हुए
राह चलते गाड़ियो के लिये मुसीबत पैदा कर रहा था।
केबल टीवी के तारों पर बीच बीच में बेवजह रौब जमाया करता था।
इन बातों से आदमी को गुस्सा आ रहा था।
आखिर पेड़ की इतनी हिम्मत
कि बिना उसका सम्मति लिये ही
वह स्वयं बढ़ा जा रहा था?
मानव जाति के उत्कृष्ट मनोभाव ने
इस बात को असहनीय बना दिया था।
अतः पेड़ को तो सज़ा मिलनी ही थी।
उसे कटना ही था!

आज धूप की खुशी का कोई ठिकाना न था।
बेआब्रू धरती पर धूप इस कदर बरसा,
जैसे अर्जुन का गांडीव से सहस्र तीर निकलकर
पितामह भीष्म को तीरों की सेज पर लिटा दिया था।

धूप की मार से बेहाल कुत्ता,
जीभ निकाल कर,
लेटकर हांफता रहता है।
और आदमी इन्तज़ार का क्षन गुजारता है।
उसकि आंखे खोजती है,
नीला अम्बर में विचरन करते हुए,
कुछ टुकरे बादल के।

सहनशीलता के चंद शब्द

पतलून और लुंगी में
छिड़ गई है आज जंग।
कौन है किसका वेश,
कौन सजे किसके अंग?

बिरियानी का चावल भी
गुस्से में बहुत आज।
मुर्गा तो है मुसलमान,
नहीं रहना अब उसके साथ।

चंदन का लेप माथे पर
या इस्तेमाल इत्र का।
खुशबू फैलाता दोनों ही
बदन हो चाहे कोई सा।

इंसान ने इंसान के बीच
बनाई है आज दीवार।
बांट दिया है मां का प्यार
और अम्मि का दुलार।

काबा पत्थर, शिवलिंग पत्थर
पत्थर कि ताकत करता है दंग।
खुद तो रहता मूक बधिर
पर इंसानों में छिड़वाता है जंग।

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